यह लोग एक ऐसा अहद हैं, जिन्हें आप ना-पसंद तो कर सकते हैं, लेकिन नकार नहीं सकते। क्योंकि इनके ज़िक्र के बिना, आपके दौर का इतिहास ही अधूरा रहेगा। आप ध्यान न भी दें तो भी इनका किया काम, हमेशा आपके आसपास रवाँ-दवाँ और जवाँ रहेगा। इनके किरदार कभी ‘बूढ़े’, ‘लाचार’, ‘माज़ूर’, ‘तन्हा’ या ‘अकेले’ नहीं होंगे।
इनका काम ही, इनकी मुहब्बत है। ये उसी के साथ जीते हैं…
अगर देखिए, तो ये हर वक़्त आपके आसपास दिखाई देंगे। सुनिए, तो सुनाई देंगे। ये कभी कॉलेज की लाइब्रेरी में मिल जाएँगे, कभी किसी किताब में अपने होने की गवाही देंगे। कभी फ़ोन खोलते ही उसके वॉल पर आ जाएँगे, कभी कम्प्यूटर की स्क्रीन पर झिलमिलाएँगे। तो कभी अपनी स्टोरी करती किसी रिपोर्टर के होंठों पर मुस्कुराएँगे। नहीं यह कभी ‘बूढ़े’, ‘लाचार’, ‘माज़ूर’, ‘तन्हा’ या ‘अकेले’ नज़र नहीं आएँगे। यह जब भी मिलेंगे, जहाँ भी मिलेंगे, यही गुनगुनाते पाए जाएँगे-
मुहब्बत एक ख़ुशबू है, हमेशा साथ चलती है,
कोई इंसान तन्हाई में भी तन्हा नहीं होता
इनका काम ही, इनकी मुहब्बत है। ये उसी के साथ जीते हैं और उसी के साथ फ़िज़ाओं में बिखर जाएँगे। हमारी यादों में उतर जाएँगे।
आज वो बूढ़े हैं, कल हम बूढ़े होंगे…
बुढ़ापा सब पर आता है। और ऐसा आता है कि फिर ज़िंदगी के साथ ही जाता है। यही शाश्वत सत्य है। आज वो बूढ़े हैं, कल हम बूढ़े होंगे। हममें से बहुत से लोग कल बिस्तर पकड़ लेंगे, बहुत से चेयर, और शायद बहुत से व्हील-चेयर। और उसके बाद शुरू होगा अतीत के सुनहरे पलों का काफ़िला। जरजर-बुढ़ापे में, ‘जवानी की बादशाहत’ याद आने का सिलसिला। कभी ख़ुशी की ख़ुशबूदार कैफ़ियत होगी तो कभी बे-मज़ा बुढ़ापे का मलाल। अपनी उम्र का बहुत-सा हिस्सा तो हमने बहुतों के साथ गुज़ारा होगा, लेकिन बुढ़ापे की दहलीज़ पर जो वक़्त होगा, हमारा होगा। यही ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है और यही उसका सिलसिला।
ऐसे लोग किसी भद्दी मोटी गाली के भी लायक़ नहीं होते…
बे-शक, वो कमज़र्फ़ होते हैं जो अपने बुज़ुर्गों को भुला देते हैं। एहसान-फ़रामोश होते हैं वो, जो अपने बड़ों को तन्हा और अकेला छोड़ देते हैं। ऐसे लोग ज़िक्र तो क्या, नफ़रत के भी क़ाबिल नहीं होते। ऐसे लोग किसी भद्दी मोटी गाली के भी लायक़ नहीं होते। ऐसे लोगों का ख़याल क्या करना ? ऐसे कमज़र्फ़ों का मलाल क्या करना ?
वो नहीं मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया,
उसे याद करके न दिल दुखा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
मुझे पतझड़ों की कहानियाँ न सुना-सुना के उदास कर,
तू ख़िजाँ का फूल है मुसकुरा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
कभी ‘तैयब बद्र’ बन कर उन्हें ख़ुशी देते हैं…
जो इस ज़िंदादिली से जीते हैं, वे कभी ‘अकेले’ नहीं होते हैं। कहीं ‘तन्हा’ नहीं होते हैं। और ‘लाचार’ तो बिलकुल भी नहीं होते। वो चाहें भी तो उसके चाहने वाले उन्हें ऐसा नहीं होने देते। उनके दीवाने कभी ‘सायरा बानो’ बन जाते हैं, तो कभी ‘राहत बद्र’ बन कर उन्हें ज़िंदगी देते हैं। वे कभी ‘शाहरुख़ ख़ान’ बन कर उनके घर पहुँच जाते हैं। कभी ‘विशाल भारद्वाज’ बन कर भोपाल चले आते हैं। और कभी ‘तैयब बद्र’ बन कर उन्हें ख़ुशी देते हैं। उनके अज़ीज़ उसकी सेहत का हाल पूछते हैं, उसका ख़याल रखते हैं। तो कभी पास जाकर उनकी रोशन-पेशानी पर अपने प्यार का हाथ रखते हैं। अपने वक़्त का कोई क़ीमती हिस्सा उनके साथ बिताते हैं।
तहज़ीब कभी अपनों से दूर होना नहीं सिखाती…
नामवर जी अपनी उम्र के जिस पड़ाव में ‘क्षेत्राश्रम’ लेते हैं, उनके बालक, शिष्य, साथी, सखा, कनिष्ठ, प्रशंसक उसे सम्मान देते हैं। बार-बार उनके घर नहीं जाते, उन्हें आराम देते हैं। जीवन के उत्तरार्द्ध ऐसे ही होते हैं। जब जी चाहा हम जागते हैं, जब जी चाहा सोते हैं। कुछ हम ज़हन में रख पाते हैं कुछ स्मृतियों से खोते हैं। हाँ, जीवन के उत्तरार्द्ध ऐसे ही होते हैं।
संस्कार कभी अपनों से विमुख होना नहीं सिखाते। तहज़ीब कभी अपनों से दूर होना नहीं सिखाती। जो हो जाते हैं वो अपने होते ही नहीं हैं। और जो अपने नहीं होते, उनके लिए कभी नहीं रोते।
दुनियावी-मुहावरे में बुढ़ापा पहाड़ जैसा होता है। बशीर साहब, दिलीप साहब और नामवर जी जैसे लोग ख़ुद पहाड़ की तरह होते हैं। और पहाड़ कभी कमज़ोर नहीं होते। अपने सब्ज़ फूलों, पौधों, दरख़्तों, वादियों और ठंडी-मीठी हवाओं के साथ, वो कभी ‘तन्हा’ या ‘अकेले’ भी नहीं होते। उनका होना न जाने कब से तय था, और न जाने कब तक इन ताबिंदा सितारों को रहना है। हाँ ये देखने के लिए हम जैसे मामूली लोगों को, कहाँ ज़िंदा रहना है ?
(लेखक वरिष्ठ कवि और साहित्यकार हैं)