झारखंड की राजनीति में मील का पत्थर माने जाने वाले और दिशोम गुरु के नाम से प्रसिद्ध शिबू सोरेन अब हमारे बीच नहीं रहे। सोमवार को उन्होंने दिल्ली के गंगा राम अस्पताल में अंतिम सांस ली। 81 वर्षीय शिबू सोरेन पिछले एक महीने से किडनी से जुड़ी गंभीर बीमारी के कारण अस्पताल में भर्ती थे। उनके निधन की खबर फैलते ही झारखंड सहित पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई।
शिबू सोरेन के पुत्र और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस दौरान लगातार उनके साथ थे। पिता के निधन की जानकारी साझा करते हुए उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर भावुक संदेश लिखा—
“आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए हैं। आज मैं शून्य हो गया हूं…”
जनजातीय चेतना के अग्रदूत
शिबू सोरेन का जीवन संघर्ष और जन अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक रहा। आदिवासी समाज के उत्थान के लिए उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी झोंक दी। झारखंड आंदोलन को दिशा देने और अलग राज्य के निर्माण में उनकी भूमिका ऐतिहासिक मानी जाती है। वे लंबे समय तक झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के अध्यक्ष रहे और तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली।
शिबू सोरेन 1980 के दशक में भूमि आंदोलन और आदिवासी अधिकारों की लड़ाई के केंद्र में रहे। उनके राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन उन्होंने कभी अपनी मूल विचारधारा से समझौता नहीं किया। उन्होंने केंद्र सरकार में भी मंत्री के रूप में काम किया।
राजनीति से आगे एक ‘दिशोम गुरु’
शिबू सोरेन न केवल एक राजनेता बल्कि आदिवासी अस्मिता और अधिकारों की आवाज थे। उन्हें झारखंड के लोग दिशोम गुरु (जनजातीय नेता) के रूप में श्रद्धा से संबोधित करते थे। उनके निधन को झारखंड की राजनीति में अपूरणीय क्षति माना जा रहा है।
विरासत और परिवार
शिबू सोरेन की राजनीतिक विरासत को उनके पुत्र हेमंत सोरेन ने आगे बढ़ाया, जो फिलहाल झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उनका जाना झामुमो और झारखंड दोनों के लिए एक युग के अंत जैसा है।
राष्ट्रीय शोक और सम्मान
शिबू सोरेन के निधन पर कई राजनीतिक दलों और नेताओं ने गहरा दुख व्यक्त किया है। प्रधानमंत्री समेत अनेक नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। झारखंड में राज्य सरकार ने शोक की अवधि की घोषणा की है।
अधूरी रह गई लड़ाई
शिबू सोरेन का सपना था कि झारखंड में आदिवासियों को पूरी सामाजिक-आर्थिक न्याय मिले। उनके निधन के बाद यह जिम्मेदारी अब नई पीढ़ी के नेताओं पर होगी कि वे उनके अधूरे सपनों को साकार करें।
उनकी स्मृति झारखंड की धरती पर हमेशा जीवित रहेगी— एक ऐसे जननेता के रूप में, जिन्होंने अपनी माटी और लोगों के लिए सब कुछ समर्पित कर दिया।
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