बिलासपुर शहर ने एक महत्वपूर्ण और शांति-पूर्ण विरोध प्रदर्शन का गवाह बना, जब आशिकाने गरीब नवाज कमेटी द्वारा अजमेर शरीफ के सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के खिलाफ दायर याचिका के विरोध में एक विशाल मौन जुलूस निकाला गया। यह विरोध प्रदर्शन धार्मिक सद्भाव और संत के प्रति गहरी आस्था को प्रदर्शित करता है, जिसमें सभी धर्मों के लोग शामिल हुए। इस आयोजन के अंत में, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नाम एक ज्ञापन जिला प्रशासन को सौंपा गया, जिसमें याचिका को वापस लेने की अपील की गई।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी संस्कृति और धार्मिक सौहार्द का प्रतीक है। लगभग 813 वर्षों से यह दरगाह लाखों लोगों की आस्था का केंद्र रही है, जहां न केवल भारत से, बल्कि विदेशों से भी श्रद्धालु अपनी श्रद्धा व्यक्त करने आते हैं। दरगाह पर सभी धर्मों के लोग आते हैं और यहां की संस्कृति विविधता और एकता को प्रकट करती है।
यह शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन बिलासपुर में भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा से प्रारंभ हुआ, जो संविधान के आदर्शों का पालन करते हुए सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक था। मौन जुलूस के माध्यम से, समुदाय ने यह संदेश दिया कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के खिलाफ याचिका दायर करना न केवल धार्मिक आस्थाओं का अपमान है, बल्कि राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सौहार्द के खिलाफ भी है।
आशिकाने गरीब नवाज कमेटी द्वारा सौंपे गए ज्ञापन में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से अपील की गई कि याचिका को तुरंत वापस लिया जाए, जिससे सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने से बचाया जा सके। ज्ञापन में इस बात पर भी जोर दिया गया कि दरगाह का ऐतिहासिक महत्व और इसके प्रति लोगों की आस्था देश के भीतर और बाहर दोनों ही जगह फैली हुई है। सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा दरगाह पर चादर चढ़ाने की परंपरा भी इसे राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा देती है।
इस मौन जुलूस में विभिन्न समुदायों और धर्मों के लोग शामिल थे, जिनमें से कुछ प्रमुख व्यक्तित्व अजमेर शरीफ से विशेष रूप से आए थे। खादिम इफ्तेकार अली, इमाम कारी गुलाम ईशा, इमाम जाहिर आगा, और मौलाना मजहर जैसे धार्मिक विद्वानों के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी जुलूस में भाग लिया। इसके अलावा, बिलासपुर के स्थानीय प्रतिनिधियों और विभिन्न समाजसेवी संगठनों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
इस मौन जुलूस ने यह साबित कर दिया कि भारतीय समाज में धार्मिक सौहार्द और सहनशीलता अभी भी जीवित है। विभिन्न धर्मों के लोगों का इस जुलूस में शामिल होना इस बात का प्रतीक था कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह न केवल मुसलमानों के लिए, बल्कि सभी धर्मों के लोगों के लिए आस्था का केंद्र है।
अंततः, यह मौन जुलूस न केवल धार्मिक आस्था के प्रति सम्मान को दर्शाता है, बल्कि सांप्रदायिक एकता और राष्ट्रीय एकजुटता की एक मजबूत मिसाल भी पेश करता है।