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बिलासपुरराजनीति

रामदयाल उइके के कांग्रेस छोड़ने के सियासी मायने… जोगी के दावे पर सच्चाई कितनी… कांग्रेस ने क्या खोया और भाजपा ने क्या पाया…


रामदयाल उइके… एक बार फिर प्रदेश ही नहीं, देश में सुर्खियों में हैं। सुर्खियों में रहने का कारण भी वही है, जो सत्र 2000 में था। यानी कि दल बदलना। जेहन में उनका आते ही दो बातें मन पर दस्तक देती हैं। पहला यह कि 2000 में छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री बनते ही यह बात राजनैतिक गलियारों में चर्चा का विषय थी कि अजीत जोगी किस विधानसभा क्षेत्र से विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे? प्रश्न स्वाभाविक था, क्योंकि सभी 90 विधानसभा सीटों पर निर्वाचित विधायक थे और उस समय जोगी की गिनती जनाधार वाले नेता के रूप में नहीं होती थी। उस समय खुद उन्हीं की पार्टी कांग्रेस में उन्हें आलाकमान की पसंद और थोपे हुए नेता के रूप में जाना जाता था। ऐसे में किसी को ये आभास ही नहीं था कि भाजपा के टिकट से पहली बार विधानसभा पहुंचे पेशे से लोहार रामदयाल उइके अपनी विधानसभा सदस्यता का त्यागकर जोगी के साथ चले जाएंगे और यही था जोगी का मास्टर स्ट्रोक, जहां से उन्होंने जननेता बनने की शुरुआत की, लेकिन इसके एवज में जब उइके बिलासपुर जिला युवक कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए तो राजनैतिक गलियारों में यह चर्चा हुई कि उइके के बलिदान का इनाम उन्हें एक लॉलीपॉप देकर दिया गया। तब उइके ने अपनी विधानसभा सदस्यता और पार्टी छोड़ने का जो कारण बताया था, वो दूसरी बात है, आदिवासी समाज का हित। हालांकि जोगी का आदिवासी होना ही विवादित हो, लेकिन इस बात पर किसी को संदेह नहीं कि जोगी ने ख़ुद को आदिवासी समाज का हितैषी बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बाद में जोगी ने ही उइके के लिए पाली-तानखार जैसी गोंगपा के नाम से पहचानी जाने वाली विधानसभा सीट से विधानसभा का मार्ग प्रशस्त किया। इन दोनों बातों से यह पूरी तरह स्पष्ट है कि तब से लेकर आज तक उइके के पास दो चीजें थीं। एक जोगी की निकटता और दूसरी उनका आदिवासी नेता होने की वजह से कांग्रेस में लगातार उनका बढ़ता हुआ क़द। यही कारण था कि उन्हें कांग्रेस में कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष का पद देकर कांग्रेस ने आदिवासियों को साधने का प्रयास किया। छत्तीसगढ़ राज्य सृजन के समय आदिवासी नेता के नाम पर जो नाम लोगों की जेहन में दस्तक देते थे, वह थे अरविंद नेताम और बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा। अरविंद नेताम 1971, 1980, 1984, 1989, 1991 में स्वयं और उनकी पत्नी छबीला नेताम 1996 में कांकेर लोकसभा सीट से चुनाव जीत लोकसभा पहुंचने का और आदिवासी हित की आवाज़ उठाने के नाम से पूरे मध्यप्रदेश में अपनी पहचान रखते थे। उन्होंने आदिवासी समाज की स्व-निर्मित शराब, जिसे लोग ताड़ी के नाम से जानते हैं और अन्य सामाजिक मान्यताओं को कानूनी रूप दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। ज़ाहिर है, ऐसे में अन्य नेताओं को उनके बढ़ते क़द और मध्यप्रदेश में आरक्षित वर्ग के लोगों की बढ़ती मांग, गोंगपा के उदय के साथ ही उनके लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी और ऐसे में छबीला नेताम का 1998 में लोकसभा चुनाव हार जाने से नेताम ने अपनी धाक खोई थी। ठीक उसी समय कांग्रेस में बस्तर टाइगर के नाम से मशहूर नेता महेंद्र कर्मा ने छत्तीसगढ़ अलग होने पर आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग उठाई। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि नेताम की बढ़ती उम्र और कर्मा के बढ़ते क़द ने नेताम के हाशिए में जाने का मार्ग प्रशस्त किया। नेताम ने 1996 में अपनी ही पार्टी छोड़ कर एक और बड़ी भूल की, जिसकी भारपाई शायद उनके लिए कर पाना संभव नहीं था। हालांकि 1998 में अरविंद नेताम कांग्रेस में लौट आए थे, पर अब उनका वह दबदबा नहीं था। अपनी खोई राजनैतिक प्रतिष्ठा को वापस पाने के प्रयास के बीच ही अरविंद नेताम एक बड़ी भूल कर गए। या यूं कहा जाए कि उन्होंने आदिवासी समाज से राष्ट्रपति की मांग कर रहे और चुनाव लड़ रहे पीए संगमा का राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन कर दिया। 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में संगमा के साथ पार्टी के विरुद्ध जाकर संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस करने पर पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। तब से हाशिए में गए नेताम मई 2018 में कांग्रेस में वापस लौट आए।

पार्ट ……1

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