नई दिल्ली। भारत के न्यायिक ढांचे में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक और दूरगामी असर वाला फैसला सुनाया है। अब से निचली अदालतों में जूनियर डिवीजन सिविल जज की नियुक्ति के लिए उम्मीदवारों को कम से कम तीन वर्ष की वकालत (लीगल प्रैक्टिस) का अनुभव होना अनिवार्य होगा। इस फैसले ने 2002 में दिए गए उस निर्णय को पलट दिया है, जिसमें लॉ ग्रेजुएट्स को सीधे न्यायिक सेवा में प्रवेश की अनुमति दी गई थी।
मुख्य न्यायाधीश भूषण रामाकृष्ण गवई, जस्टिस एजी मसीह और जस्टिस विनोद चंद्रन की तीन सदस्यीय पीठ ने यह निर्णय सुनाया। अदालत ने स्पष्ट किया कि न्यायिक सेवा जैसी ज़िम्मेदारीपूर्ण व्यवस्था में कार्यरत अधिकारियों को अदालत की कार्यप्रणाली और न्यायिक प्रक्रिया की व्यावहारिक समझ होनी आवश्यक है, जो केवल वकालत के अनुभव से ही संभव है।
जस्टिस गवई ने अपने टिप्पणी में कहा, “पिछले दो दशकों का अनुभव बताता है कि बिना प्रैक्टिस वाले जजों की नियुक्ति से कई जटिलताएं उत्पन्न हुई हैं। यह मॉडल व्यावहारिक रूप से विफल रहा है।” उन्होंने यह भी बताया कि विभिन्न उच्च न्यायालयों ने दाखिल हलफनामों में इसका समर्थन किया है कि न्यूनतम प्रैक्टिस की शर्त आवश्यक होनी चाहिए।
वर्ष 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल की अनिवार्य वकालत की शर्त को हटाते हुए सीधे लॉ ग्रेजुएट्स को न्यायिक परीक्षा में बैठने की अनुमति दे दी थी। इसके बाद बड़ी संख्या में युवा स्नातक बिना किसी व्यावसायिक अनुभव के न्यायिक पदों पर नियुक्त होने लगे। हालांकि, समय के साथ इस व्यवस्था की आलोचना होती रही और कई उच्च न्यायालयों ने पुनः प्रैक्टिस की न्यूनतम अवधि लागू करने की मांग की।
यह निर्णय न केवल न्यायिक सेवा की गुणवत्ता में सुधार लाने की दिशा में एक कदम है, बल्कि यह यह भी सुनिश्चित करेगा कि न्यायिक अधिकारी व्यवहारिक ज्ञान और कानूनी प्रक्रिया की गहराई को समझें। इससे कोर्ट में मामलों की सुनवाई अधिक न्यायसंगत और व्यावहारिक हो सकेगी।