बिलासपुर के सिलियारी स्थित ग्राम पोड़ी के संतुराम पाल एक जीवित उदाहरण हैं कि किस तरह विकलांगता और आर्थिक तंगी के बावजूद आत्मनिर्भरता को बनाए रखा जा सकता है। दोनों पैरों से विकलांग होने के बावजूद संतु ने कभी भी अपनी स्थिति को कमजोरी नहीं माना। उनका संघर्ष और आत्मसम्मान से भरा जीवन इस बात का प्रमाण है कि अगर हिम्मत और जुनून हो तो कोई भी मुश्किल मुश्किल नहीं रहती।
संतु पाल का जीवन बचपन से ही कठिनाइयों से भरा हुआ था। वे बताते हैं कि वे बचपन से विकलांग थे, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने सायकल चलाना सीखा और अपनी शिक्षा पूरी की। इसके बाद उन्होंने अपने जीवनसाथी के साथ मिलकर टेलरिंग का काम किया, जिससे परिवार का पालन पोषण होता रहा। लेकिन एक दिन उनका शरीर पूरी तरह से जवाब दे गया और उनके पैर काम करना बंद कर दिए, जिससे उनका जीवन और भी कठिन हो गया।
हालांकि, संतु ने हार नहीं मानी और अपने बचपन के शौक, यानी बांसुरी बजाने की कला, को एक नया आयाम दिया। वे कहते हैं कि बांसुरी की धुन से वे न केवल अपना मन बहलाते हैं, बल्कि लोगों का ध्यान भी आकर्षित करते हैं। सड़क पर बैठकर बांसुरी बजाने से उन्हें कुछ रुपये मिल जाते हैं, जो उनके परिवार का भरण पोषण करने के लिए पर्याप्त होते हैं। हालांकि, वे स्वीकार करते हैं कि यह आय उतनी नहीं है, जितनी उन्हें चाहिए। फिर भी संतु ने कभी भी भीख नहीं मांगी और अपनी आत्मनिर्भरता बनाए रखी।
संतु का सपना है कि उन्हें सरकार द्वारा एक ट्राई साइकल और एक छोटा सा दुकान मिल जाए, जिससे वे अपनी आजीविका और परिवार का बेहतर तरीके से पालन कर सकें। वे सरकार से गुहार लगाते हैं कि इस सहायता से वे अपने जीवन को बेहतर बना सकें और अपने परिवार के साथ आत्मसम्मान से जीवन जी सकें।
संतु पाल की कहानी हमें यह सिखाती है कि विकलांगता कोई अंत नहीं है, बल्कि यह एक चुनौती है। अगर हम अपने भीतर की ताकत को पहचानें और जीवन में आने वाली समस्याओं का डटकर सामना करें, तो कोई भी समस्या बड़ी नहीं होती। संतु पाल जैसे लोग हमारे समाज के लिए प्रेरणा स्रोत हैं, जो अपने संघर्ष और आत्मसम्मान से जीवन के हर पहलू में उत्कृष्टता की मिसाल पेश कर रहे हैं।