बिहार में फैल रहे चमकी बुखार से लीची का नाम जुड़ने से उत्पादकों और इसके स्वाद के शौकीनों को चिंता करने की जरूरत नहीं है। विशेषज्ञों के मुताबिक लीची का इस गंभीर बीमारी से कोई ताल्लुक नहीं है। इस बात की तस्दीक लीची अनुसंधान केंद्र मुजफ्फरपुर (बिहार) के वैज्ञानिक भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि बिहार के लीची उत्पादन बाहुल्य इलाकों में यह बुखार फैलना महज एक संयोग है। लीची में ऐसा कोई हानिकारक तत्व नहीं है जो इस गंभीर बीमारी का कारण बने।
दरअसल, सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे कुछ संदेशों में एक्यूट इनफ्लेसाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के फैलने का कारण लीची को बताया जा रहा है। इसमें एक शोध का हवाला देते हुए बताया जा रहा है कि इसमें मिथेलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसीन (एमसीपीजी) नामक तत्व होता है।
पल्प में एमसीपीजी की मात्रा नहीं
बच्चे जब भूखे पेट इसका सेवन करते हैं तो उनमें यह शुगर स्तर को घटा देता है, जिससे उन्हें यह गंभीर बीमारी हो जाती है। इस संबंध में मुजफ्फरपुर (बिहार) स्थित लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. विशाल नाथ से बृहस्पतिवार को अमर उजाला ने फोन पर बात की।
डॉ. नाथ ने बताया कि लीची के पल्प (गूदा) को कई बार जांच के लिए भेजा जा चुका है। पल्प में एमसीपीजी की मात्रा नहीं है। ऐसे में यह कहना कि लीची के सेवन से बच्चों में यह बीमारी हो रही है गलत है।
बिहार के क्षेत्र विशेष में भी यह महज एक संयोग है। उन्होंने बताया कि इस शोध को जल्द प्रकाशित भी किया जाएगा। इधर, संचारी रोग नियंत्रण के राज्य नोडल अधिकारी डॉ. पंकज सिंह ने बताया कि उन्होंने कई शोधों का अध्ययन किया है। कई जगह उनकी बातें भी हुई हैं, लेकिन अभी तक यह साफ नहीं हुआ है कि यह रोग लीची के सेवन से फैल रहा है।
लीची के पारिवारिक फल में है हानिकारक तत्व
डॉ. नाथ के अनुसार एमसीपीजी की मात्रा को लेकर दक्षिण अमरीका में ‘एकी’ नाम के फल पर शोध हुआ था। यह फल लीची के परिवार (सापंडेसिया) का ही है, जिसकी बनावट भी लगभग लीची जैसी है।
इसके बीज में एमसीपीजी की मात्रा पाई गई थी। डॉ. नाथ ने बताया कि कच्ची लीची के बीज में भी इसकी मात्रा पाई जाती है, लेकिन पके हुए फल में नहीं। इसका बीज नहीं बल्कि पल्प खाया जाता है। इसीलिए ये सब बातें निराधार हैं।