बिलासपुर।
न्याय में देर हो सकती है, लेकिन अंधेर नहीं—इस कहावत को सच साबित किया है छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने, जब 31 साल पहले झूठे मुकदमे में फंसाकर जेल भेजे गए भिलाई के व्यवसायी प्रदीप जैन को न्याय मिला। हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में दोषी पुलिस अधिकारियों से 5 लाख रुपये की क्षतिपूर्ति वसूलने का आदेश दिया है।
व्यवसाय और पत्रकारिता बना वजह प्रताड़ना की
प्रदीप जैन, जो भिलाई सेक्टर-6 में “प्रदीप सायकल स्टोर” के मालिक थे, पुलिस अत्याचारों के विरुद्ध समाचार पत्रों में लेख प्रकाशित करते थे। यह ही उनके खिलाफ रंजिश का कारण बन गया। एएसआई आर के राय, जो सुपेला थाने में पदस्थ थे, उन्हें सबक सिखाने की फिराक में थे। 28 दिसंबर 1994 की रात प्रदीप जैन और उनकी पत्नी को सुपेला थाना बुलाया गया, जबकि मामला भिलाई सिटी कोतवाली में दर्ज था।
थाने में प्रदीप जैन को प्रताड़ित किया गया और राय ने धमकी दी—”ऐसे केस में फसाऊंगा कि बीस साल तक जेल में सड़ जाओगे”। अगले दिन उनकी पत्नी को रिहा कर दिया गया, लेकिन प्रदीप को झूठे अफीम के केस में फंसा दिया गया। आरोप था कि वे तितुरडीह में अफीम बेचने की कोशिश कर रहे थे, जबकि वे तब तक पुलिस अभिरक्षा में थे।
ढाई साल जेल, 893 दिन की पीड़ा
प्रदीप जैन ने यह साबित किया कि उन पर लगाया गया मुकदमा पूरी तरह झूठा था। इसके बावजूद, वे 893 दिन—करीब ढाई साल तक जेल में रहे। ट्रायल कोर्ट से बरी होने के बाद उन्होंने झूठे अभियोजन के खिलाफ क्षतिपूर्ति की मांग की, लेकिन जिला न्यायालय दुर्ग ने इसे खारिज कर दिया।
हाईकोर्ट में मिली न्याय की रोशनी
जैन ने एडवोकेट उत्तम पाण्डेय, विकास बाजपेयी और पूजा सिन्हा के माध्यम से हाईकोर्ट में अपील की। न्यायमूर्ति रजनी दुबे व न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत की पीठ ने स्पष्ट रूप से पुलिस की भूमिका को अवैध, विद्वेषपूर्ण और अन्यायपूर्ण ठहराया। कोर्ट ने 5 लाख रुपये क्षतिपूर्ति देने का आदेश दिया, जिसमें मुकदमा प्रस्तुति तिथि से 6% वार्षिक ब्याज भी शामिल है।
दोषी अधिकारी, सेवानिवृत्त या मृत, लेकिन जिम्मेदार
फैसले के अनुसार, यदि राज्य सरकार चाहे तो यह राशि दोषी अधिकारियों से वसूल सकती है। इनमें एक अधिकारी की मृत्यु हो चुकी है, जबकि अन्य दो—एम.डी. तिवारी और शमी—सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
न्यायिक निर्णयों की शक्ति
यह मामला न्यायपालिका की उस शक्ति का प्रमाण है, जो वर्षों बाद भी अन्याय के खिलाफ खड़ी होती है। यह न केवल एक व्यक्ति की लड़ाई की जीत है, बल्कि सिस्टम के भीतर सुधार और जवाबदेही की आवश्यकता का भी संकेत है।