बिलासपुर। हाल ही में शहर में हुई दो घटनाओं ने पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। पहली घटना 25 अगस्त की रात पुराना बस स्टैण्ड स्थित सीएमडी चौक पर हुई, जिसमें राहुल सिंह चौहान की हत्या कर दी गई। वहीं दूसरी घटना 9 सितंबर की रात हुई, जिसमें आरोपी दीपक ठाकुर ने अपने साथी के साथ मिलकर दो युवकों पर चाकू से हमला कर दिया। इन दोनों मामलों में सबसे चिंताजनक बात यह है कि पुलिस के पास स्पष्ट सबूत और जानकारी होने के बावजूद आरोपी अब तक गिरफ्तार नहीं हो पाया है।
पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर दीपक ठाकुर को संदिग्ध के रूप में पहचाना, लेकिन इसके बाद भी पुलिस की तमाम कोशिशों के बावजूद वह गिरफ्त से बाहर है। यहाँ एक सवाल उठता है आखिर क्यों, जब तकनीकी साधनों का भरपूर उपयोग हो रहा है, तब भी पुलिस एक अपराधी को पकड़ने में असफल है?
आज के समय में पुलिस की जांच प्रक्रियाओं में तकनीक का बड़ा योगदान है। सीसीटीवी, मोबाइल ट्रैकिंग और अन्य इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस अपराधियों की पहचान और ट्रैकिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन जैसा कि बिलासपुर के मामले में देखा गया, अगर अपराधी इन तकनीकी साधनों का उपयोग नहीं कर रहा हो, तो पुलिस की जांच प्रभावित हो सकती है।
तकनीक की सीमाओं को समझना भी जरूरी है। जैसे कि इस मामले में अपराधी ने शायद अपनी लोकेशन छिपाने के लिए मोबाइल का उपयोग नहीं किया, जिससे पुलिस की तकनीकी जाँच निष्फल हो गई। इसी प्रकार, अगर अपराधी तकनीकी साधनों का उपयोग नहीं कर रहा है या उन्हे चकमा देने में माहिर है, तो पुलिस के पास पारंपरिक तरीकों से ही काम करना पड़ेगा।
प्राचीन समय से अपराध की जांच में मुखबिरों का तंत्र बेहद कारगर रहा है। स्थानीय समुदायों और अपराधियों की गतिविधियों की जानकारी रखने वाले मुखबिर पुलिस के लिए आँख और कान के समान होते थे। लेकिन समय के साथ पुलिस ने मुखबिरों पर निर्भरता कम कर दी और आधुनिक तकनीकी साधनों पर अधिक भरोसा करना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप, जब कोई अपराधी तकनीकी साधनों को चकमा देता है, तो पुलिस के पास मुखबिरों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करने की क्षमता कमजोर हो जाती है।
मुखबिर तंत्र की खास बात यह है कि यह अपराधियों के वास्तविक ठिकानों और गतिविधियों की जानकारी आसानी से जुटा सकता है, जो तकनीकी साधनों से हमेशा मुमकिन नहीं हो पाता। बिलासपुर के मामले में भी यही देखने को मिल रहा है। आरोपी खुलेआम घूम रहा है, लेकिन पुलिस उसे पकड़ नहीं पा रही।
आज की पुलिसिंग में तकनीक आवश्यक है, लेकिन पारंपरिक जाँच प्रणाली को नकारना भी सही नहीं होगा। बिलासपुर के मामलों से स्पष्ट है कि पुलिस को अपनी जांच प्रक्रियाओं में संतुलन बनाना होगा। केवल तकनीक पर निर्भर रहना एक बड़ी चूक हो सकती है।
पुलिस को मुखबिर तंत्र को फिर से सक्रिय करना चाहिए। साथ ही, स्थानीय जनता से भी सहयोग लेना महत्वपूर्ण है। कई बार स्थानीय लोगों को अपराधियों की गतिविधियों की जानकारी होती है, लेकिन वे पुलिस के पास नहीं जाते। यदि पुलिस जनता का भरोसा जीतने में सफल होती है, तो अपराधियों की धरपकड़ में आसानी होगी।
पुलिस के लिए इस तरह के मामलों से सीख लेकर अपनी क्षमताओं का पुनर्मूल्यांकन करना जरूरी है। इसमें सबसे प्रमुख बात यह है कि तकनीकी और पारंपरिक जांच प्रक्रियाओं में संतुलन बनाया जाए। अपराधी चाहे तकनीकी साधनों का उपयोग करे या नहीं, पुलिस के पास हर स्थिति में उसे पकड़ने के लिए विकल्प होने चाहिए। मुखबिर तंत्र को पुनर्जीवित करना और जमीन पर सक्रियता बनाए रखना पुलिस की कार्यक्षमता में सुधार ला सकता है।
बिलासपुर में हुई घटनाओं ने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है कि क्या केवल तकनीक पर निर्भरता पुलिसिंग की सही दिशा है? इसका जवाब है—नहीं। पुलिस को अपनी पारंपरिक क्षमताओं को फिर से सशक्त करना होगा, ताकि किसी भी अपराधी को गिरफ्तारी से बचने का मौका न मिले।